लाट साहब!! गुस्सा जायज पर आप भी डकैतों का साथ देने वालों का सजदा छोड़ें
राजगढ़ में एक अशोभनीय बयान ने एलीट ब्यूरोक्रेसी की डिग्निटी को जगा दिया। आमतौर पर सोशल प्लेटफार्म पर गरिमामय आचरण वाले आईएएस अफसर इससे इतना आहत हुए कि 4dignity मुहिम छेड़ कर भरपूर मुखर हो गए। अनुभवी हों या जमीनी हकीकत से पहली बार साबका वाले अथवा फील्ड पोस्टिंग की बाट जोह रहे नए अफसर, सभी खुल कर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गंदी सोच वाला बयान देने वाले नेता के खिलाफ उबल पड़े। लेकिन जरा सोचिए, जिनके सम्मान में इन्हें कुर्सी छोड़ कर खड़े होने का नियम और परंपरा है, उनके प्रति इनकी ये क्या भाषा है। क्या मसूरी की प्रशिक्षण अकादमी में यह भी सिखाया गया है।
गुना कलेक्टर भास्कर लाक्षाकार ने सबसे तीखा और वाजिब रिएक्शन दिया है। युवा कलेक्टर ने फेसबुक पर लिखा है- “ये डकैत आपके (कलेक्टर) बारे में न्यायाधीश बने फिरते हैं। जिसका जो मन आता है आप पर (आप यानी अफसर, कलेक्टर या एसपी ही नहीं छोटे साधारण कर्मचारी तक इसमें शामिल हैं) आरोप लगा कर हें-हें ठें-ठें कर निकल जाता है। ये उन लोगों के पक्ष में सीना ठोक कर झूठ बोलते हैं और आपको कोसते हैं, जिनकी दिनदहाड़े की डकैती और घपलेबाजियां सारा शहर जानता है।”
तन्वी हुड्डा हों, सोनिया मीणा या फिर रघुराज राजेंद्रन सबको बयान पर इतना गुस्सा आ रहा है कि वो अपनी डिग्निटी के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की डिग्निटी भूलने को बेकरार हैं।
बढ़िया है बाबू जी! बाबू शब्द ब्यूरोक्रेसी के लिए दशकों से इस्तेमाल हो रहा है। सम्भवतः अंग्रेजों के समय से जब लगान इत्यादि राजस्व संग्रहण के लिए इस सर्विस का गठन हुआ था। गुस्सा आना भी चाहिए, लेकिन सिर्फ एक पक्ष पर? घटिया मानसिकता वाले बयान पर नाराजगी जायज है, लेकिन क्या मध्यप्रदेश में कोई ऐसा अफसर भी है, जिसने राज्य मंत्री पद पर रहते समय सामने पड़ने पर बद्रीलाल यादव को सलाम न ठोका हो? यदि है तो गुस्सा जायज है। साल भर पहले तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान या मंत्री रहे उनकी पार्टी नेताओं की जी हजूरी न की हो? आपने अपनी डिग्निटी के लिए तमाम सियासी बिरादरी को डकैत और घपलेबाज का तमगा देकर उनकी डिग्निटी को चुनौती दी है। अब आप कैसे वर्तमान सत्ताधारी नेताओं के सम्मान में मुश्कें कस कर सजदा करेंगे? इनमें से कुछ अभी भी माफियामुक्त अभियान में किसी माफिया की पैरवी कर रहे होंगे। कोई किसी बेशकीमती जमीन को हथियाने दबाव डाल रहा होगा। किसी को रेत के अवैध खनन की वैधता बरकरार रखनी होगी। बहुतेरे काम अफसर नेताओं के इशारे अथवा दबाव/प्रभाव में करते हैं।
आपकी ही बात को सच मानें तो नेता कोई भी हो वो वही सब कृत्य करता है, जो खामियां आपने गिनाई हैं। सत्ता तो आनी-जानी है। आज जो आसीन हैं, कल विपक्ष में रह कर ऐसे ही आपको गरिया रहे थे। कल फिर सत्ता से हटेंगे तब भी उनका वही व्यवहार नहीं होगा इसकी कोई गारंटी दे सकता है! “शुद्ध के लिए युद्ध” छेड़ना है तो कसम उठाएं कि नेताओं के कहने पर कोई नियम विरुद्ध कार्य नहीं करेंगे, न होने देंगे। डकैत हितैषी और डिग्निटी पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले किसी नेता का कुर्सी छोड़ कर स्वागत नहीं करेंगे।
लोकतांत्रिक व्यवस्था की यही रीति है कि उसमें सभी तरह के लोग बिना किसी छन्ने के ऊपर तक पहुंच जाते हैं। आप लोगों ने एक तराजू पर सारे सियासी मेंढ़क तौलने का दुस्साहस दिखाया है। हो सकता है ये अभी इसे पचा जाएं, मौका मिलने पर भंजाएंगे जरूर।
चर्चा-विमर्श कलेक्टर मैडम के परफॉर्मेंस पर भी किया जाना प्रासंगिक होगा। क्या आईएएस एसोसिएशन ने यह पड़ताल करने की आवश्यकता समझी कि एक कलेक्टर वो भी महिला को क्यों इस तरह भीड़ में प्रवेश कर मारपीट करनी पड़ी? जबकि पर्याप्त पुलिस बल और पुरुष अधिकारी उनके साथ थे। क्या जिले में कलेक्टरी का यह नया गुर लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी मसूरी में सिखाया जाने लगा है? यदि ऐसा है तो CAA के समर्थन और विरोध में देश भर में हो रहे प्रदर्शन के दौरान उन जिलों के कलेक्टर क्यों इस तरह पुलिस को परे रख खुद नहीं जूझे?
कई रिटायर्ड और कलेक्टरी के अनुभवी इन सर्विस अफसर उनके इस बर्ताव से सहमत नहीं हैं। मंत्रालय में कलेक्टर निधि निवेदिता के इस रूप को लेकर चर्चाओं का दौर चल रहा है। एक सीनियर अफसर का तर्क है कि मैडम को खुद हाथ खोलने के बजाए पुलिस को हुक्म देना था। कलेक्टरी का मतलब भी यही है। जिलाधीश के पास कानून-व्यवस्था संभालने से लेकर पूरे जिले की व्यवस्थाओं के सुचारू संचालन के लिए असीमित अधिकार और अमला होता है। मीटिंग, मॉनिटरिंग और निर्देश देना, अमल कराना उसके रसूख को बढ़ाता है। तो क्या राजगढ़ की पुलिस या निचला अमला कलेक्टर की अनसुनी कर देता,जो वो खुद दुर्गा अवतारी भूमिका में आ गईं!
भूतपूर्व मुख्य सचिव विजय सिंह के साथ काम कर चुके एक अफसर कलेक्टर के व्यवहार को बचकाना बताते हुए कहते हैं कि कई अफसर तमाचा मारने वाले रहे हैं। खुर्राट अफसर विजय सिंह ने भी उनके सामने जबलपुर की पोस्टिंग के दौरान हाथ साफ किए थे। एक किस्सा किसी आदिवासी ग्रामीण हाट का है, जहां कोई व्यापारी खुली दवाइयां बेचता था। सिंह साहब ने सिरदर्द की गोली मांगी तो देखा बक्से में एंटीबायोटिक्स भी है। चटाक से गाल बजा दिया। जूनियर ने पूछा पुलिस को दे देते मारा क्यों? जवाब मिला- अब जिंदगी भर वो ये गलती नहीं करेगा। पुलिस से छूट जाता तब भी दवाई ही बेचता।
दूसरा किस्सा ठस लोगों की धरती मुरैना का है। एक साहब की पोस्टिंग हुई तो लोगों ने सलाह दी थप्पड़बाजी करने वाले को ही वहां के लोग काबिल अफसर मानते हैं। साहब ने भी राह चलते एक गांववाले का गाल लाल कर दिया। साथ चल रहे सुरक्षा कर्मी ने समझाया, हम किस लिए हैं। आप निर्देश दीजिए पीटने का काम हमारा है। यदि पलट कर वो युवक मार देता तो क्या स्थिति बनती?
पलट कर मारने का यही सवाल राजगढ़ में भी था। हजारों की भीड़ में यदि कोई कलेक्टर के साथ बदतमीजी कर देता तब..? पुलिस और उनके गार्ड क्या करते! फायर खोलते या भागते? दो-चार को यदि गोली या लाठीचार्ज से घातक हानि पहुंचती तब…। मंदसौर कांड नहीं दोहराया जाता। उस स्थिति में जो आज कलेक्टर का पक्ष ले रहे वे क्या कहते? ब्यूरोक्रेसी घटिया बयानबाजी की खूब निंदा करे, लेकिन अपने गिरेबान में भी झांक कर देखे। यह नेताओं के गलत निर्देश न माने तो डकैत और घपलेबाज रहेंगे ही कैसे? यह अपनी डिग्निटी खुद मेंटेन करे तो किसी की हिम्मत नहीं होगी उन पर सवाल उठाने की। क्या हर बार राजनीतिक इशारे पर या किसी के खिलाफ मीडिया ट्रायल पर मुखर होने वाला आईएएस एसोसिएशन सालाना जलसे की तरह इन बिंदुओं पर भी चिंतन करेगा?