सिंहस्थ: अपने-अपने कुंभ !

जमाना ऑनलाइन का है। सो, ऑनलाइन शापिंग कीजिए। ऑनलाइन दर्शन कीजिए। लेकिन, ऑनलाइन पवित्र क्षिप्रा में डुबकी तो नहीं लगा सकते ना ? घर बैठे अमृत तुल्य जल से आचमन और स्नान का फल नहीं ले सकते! बस इसीलिए कल-कारखाने से आगे बढ़ कर मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में भी कुंभ का महत्व बरकरार है। और इसीलिए उज्जैन में हो रहे सिंहस्थ कुंभ में श्रद्धालुओं की कमी को लेकर सवाल उठ रहे हैं।

बारह साल में एक बार आने वाले इस आस्था के महापर्व को लेकर तर्क-वितर्क और विविध चर्चाओं के साथ प्रश्न खड़े हो रहे हैं। आखिर क्या कारण हैं कि पहले शाही स्नान में सरकार और मीडिया की अपेक्षा से काफी कम लोग उज्जैन पहुंचे। क्या नास्तिकता बढ़ गई है या फिर लोगों ने कठौती में गंगा….की तर्ज पर मोबाइल या लेपटॉप पर ही क्षिप्रा दर्शन कर शुभ मुहूर्त में स्नान का पुण्य लाभ ले लिया? किसी स्थान पर भीड़ बढ़ जाए तो कानून-व्यवस्था का प्रश्न बन जाता है, लेकिन कुंभ में भीड़ न जुटे तो कानून-व्यवस्था पर ही सवाल उठने लगते हैं। इसलिए वो प्रशासन और सरकार सवालों के घेरे में है, जिसने भक्तों के लिए तमाम सुविधाएं जोड़ने उज्जैन में साढ़े तीन हजार करोड़ रूपए से अधिक खर्च किए। नए पुल पुलिया बनाए, सड़कें चौड़ी कीं, कई किलोमीटर लंबे नए घाट बनाए और सबसे बड़ा काम किया सिंहस्थ में सुरक्षा को लेकर ऐसी चौकसी बरती कि….लोगों में दहशत भर गई। बेवजह भक्तों को कई किलोमीटर लंबे चक्कर लगवाए। थोड़ी-थोड़ी दूर पर बेरिकेड्स लगा कर उन्हें बाधा दौड़ का ऐसा प्रतिस्पर्धी बनाया कि जो उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका जिसके लिए वह मध्यप्रदेश ही नहीं देश के दूसरे प्रदेशों से आया था। लोग उस पवित्र क्षिप्रा तक नहीं पहुंच पाए जिसकी पवित्रता बढ़ाने के लिए करोड़ों रूपए अलग से खर्च कर नर्मदा मैया का क्षिप्रा में मिलन कराया गया है।

भीड़ न जुटने के कई कारणों में एक कारण गर्मी को भी ठहराया जा रहा है। सिंहस्थ तो हर बार इसी मौसम में होता रहा है। जब सड़के चौड़ी नहीं थीं, घाट कम थे और पुल पुलिया भी नहीं थे तब भी लोग क्षिप्रा में श्रद्धा की डुबकी लगाने आते थे। अबकी बार जरूर कुछ अनूठा हो गया। खैर आयोजन को लेकर स्थायी निर्माण और उज्जैन को संवारने की सरकार की कोशिशों की दाद देनी होगी। सम्राट विक्रमादित्य की राजधानी रही अवंतिका नगरी का रूप निखार दिया गया। परन्तु सिंहस्थ की धार्मिकता की कसौटी पर वातानुकूलित कमरों में पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के जरिए योजनाएं बनाने वाले ‘बड़े बाबू’ फेल हो गए। निर्माण, निर्माण और निर्माण की गूंज में इस आयोजन का मूल तत्व ही कहीं गुम हो गया। रही सही कसर, हाईटेक होने की ललक ने पूरी कर दी। जिस देश के मोबाइल फोन उपयोगकर्ताओं में से तीन चौथाई से अधिक लोग केवल कॉल करना और रिसीव करना जानते हों, उनके लिए सिंहस्थ का मोबाइल एप, ऑनलाइन पार्किग व्यवस्था, वाई-फाई कनेक्टविटी जैसे इंतजाम….वाह!

साधु संतों को खुश करने उनके अखाड़ों में कई करोड़ खर्च कर स्थायी निर्माण तो किए गए, लेकिन मेला क्षेत्र में लगने वाले पंडाल और उसमें ठहरने वाले संत तथा उनके भक्तों के लिए बुनियादी आवश्यकता का साधन मुहैया कराने में तंत्र असफल रहा। सबसे ज्यादा अव्यवस्था का राग शौचालय और पानी को लेकर उठ रहा है। अब तक शौचालय बनाए जा रहे हैं, जब सिंहस्थ शुरू हुए दस दिन से ज्यादा हो चुके हैं। जो शौचालय बने उन्हें लेकर भी भांति-भांति की शिकायतें आ रही हैं। कहीं सीवेज तंबुओं में भर रहा है तो कहीं पानी की किल्लत है। संतों का पारा चढ़ाने वाला काम ये भी कि जिनको संतों की सेवा के लिए तैनात किया गया उन आला अफसरों ने शाही स्नान पर साधु संतों से पहले क्षिप्रा स्नान कर लिया। मानो उनके पाप इतने बढ़ गए थे कि बाद में नहाते तो उतर नहीं पाते। बवाल मचना था सो मचा। अब मुनादी करा दी गई है कि उज्जैन सभी भक्तों के लिए खुला है। बेरोकटोक पैदल जाओ, गाड़ी से जाओ। पूरे मेला क्षेत्र में कहीं भी घूमो। कोई पाबंदी नहीं….लेकिन एक बार तो पधारो सिंहस्थ….।  

सरकार को लोगों की सुध आई तो अब खालसों और महामंडलेश्वरों की उन शिकायतों को निपटाने के लिए लाइजिनिंग अधिकारी तैनात किए जा रहे हैं, जिनके लिए अखाड़े और खालसा तंबू की पहली बल्ली गाड़ने के दौरान से चिल्ला रहे थे। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर प्रभारी मंत्री भूपेंद्र सिंह जिनकी हर समस्या सुन रहे थे और निराकरण के निर्देश दे रहे थे, लेकिन अफसर कुछ का समाधान करते तो कई अधूरी छोड़ रहे थे। सिंहस्थ-2016 का एक स्थायी पहलू ये भी है कि मुख्यमंत्री और प्रभारी मंत्री मुस्तैद, अफसर मस्त मलंग।

कुंभ की अपनी परंपरा और मर्यादा है। इसमें न तो नागा साधु किसी के निमंत्रण की प्रतीक्षा करते हैं और न ही आस्थावान लोग। गांव-देहात, कस्बा-शहर, देश-प्रदेश ही नहीं विदेशों से भी लोग भक्ति भाव से इसमें खिंचे चले आते हैं। सबकी अपनी आस्था होती है सबके अपने उद्देश्य। शायद यही वजह है कि श्रद्धालुओं की आवश्यकताओं का ख्याल वो संत अपने तंबू में रखते हैं, जिनका ध्यान जनता जब तब करती रहती है। अखाड़ों में रोज भंडारे होते हैं। बिना जाति, प्रदेश पूछे रात्रि विश्राम के लिए जगह भक्तों को पंडाल में मिल जाती है। स्थानाभाव रहा तो धरती मां की गोद ही उनका बिछौना बनती है…मेला क्षेत्र में हर ओर भक्तों का सैलाब ही कुंभ का परिचायक है। लेकिन, उज्जैन का अबकी बार का सिंहस्थ अपने सनातन स्वरूप से भटका दिख रहा है तो इसका दोष व्यवस्थापकों पर है, जिन्होंने आस्था पर व्यवस्था का बोझ लाद दिया।

कुंभ की कथा बस यहीं तक सीमित नहीं है। साधु-संतो और श्रद्धालुओं के इस मेले में कुछ और अखाड़े आ गए हैं। सबसे ज्यादा चौंकाया है सरकारी और राजनीतिक अखाड़ों ने। सरकारी स्तर पर इस धार्मिक आयोजन को किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का रूप देने का प्रबंध किया गया है। एक तरफ अखाड़ों के पंडाल में यज्ञ, हवन, कथा और प्रवचन चल रहे हैं तो सरकारी तंत्र रोज अलग-अलग प्रांत और संस्कृतियों पर आधारित कार्यक्रम करा रहा है। वैचारिक महाकुंभ जैसे मेगा आयोजन भी होने हैं। राजनीतिक अखाड़ों ने तो अपने महान चुनावी लक्ष्य को भेदने के लिए समरसता स्नान और शबरी स्नान जैसे नए स्नान पर्व ही सृजित कर डाले। प्रचार किया जा रहा है कि राजनीतिक दल के प्रमुख दलितों के साथ स्नान करेंगे…उनके साथ ही भोजन ग्रहण करेंगे। कुंभ के इतिहास में कभी ऐसे आयोजनों का उल्लेख नहीं हुआ। उज्जैन ही नहीं, वरन प्रयागराज, हरिद्वार और नासिक कुंभ में भी कभी किसी ने बगल में स्नान करने वाले की न तो जात पूछी और न ही धर्म। कुंभ का मतलब ही है सभी का सामूहिक अमृतपान। उज्जैन में तो सबके अपने-अपने कुंभ दिख रहे हैं। भक्तों, संत, महात्माओं के अपने कुंभ। व्यापारियों और ठेकेदारों के अपने कुंभ। अफसरशाही का अपना अलग कुंभ तो नेताओं का अपना कुंभ।  

आस्था के इस महापर्व में जिसकी जैसी आस्था, जैसी लालसा वो वैसे आए हैं या आ रहे हैं। महाकालेश्वर की नगरी सबका स्वागत करने को तैयार है। पंचक्रोशी परिक्रमा में जब बच्चे, बूढ़े और महिला,पुरूषों का हुजूम तीखी धूप में 118 किलोमीटर की परिक्रमा लगाएगा, तब वे लोग कोई उम्मीद लेकर नहीं आएंगे कि उनके लिए मार्ग में क्या इंतजाम किए गए हैं। परिक्रमावासियों ने कभी कोई ऐसी मांग की भी नहीं। वो तो अपने सुख के लिए कच्चे पक्के रास्ते पर भरी धूप में पैदल चलने का कष्ट झेलते हैं। सरकार ने उनकी भी सुध ली, ये अच्छी बात है। ठीक इसीतरह सिंहस्थ को लेकर उज्जैन में कराए गए निर्माण कार्य भी साधुवाद के हकदार हैं। लेकिन आयोजकों को समझना होगा कि कुंभ तो भक्तों और संतों का है। कोई व्यवस्था न भी करें तब भी मेला लगेगा और भरपूर इंतजाम हो तब भी लोग जुटेंगे। वे अपने आध्यात्मिक सुख के लिए आते हैं। इसलिए उनकी नैसर्गिक जरूरतों को आम श्रद्धालु की नजर से देख कर पूरा किया जाए, न कि किसी सरकारी बांध या सड़क निर्माण की तर्ज पर।

एक बात यह भी कि प्रदेश सरकार हर बार अफसरों को दूसरी जगह लगने वाले कुंभ का जायजा लेने भेजती है। ताकि  व्यवस्था में सुधार किया जा सके। दूसरी जगहों पर किए गए नवाचार अपना कर जनता को और सहूलियत मुहैया कराई जाएं और अपनी पिछली खामियों को दुरूस्त किया जा सके। जैसी आवाजें आ रही हैं वो इशारा कर रही हैं कि क्या कुछ सीखा गया है, दूसरी जगहों से और पिछले सिंहस्थ से। नासिक का पिछला कुंभ भरी बरसात में हुआ था। वहां भी पंडाल लगा चुके पहाड़ी बाबा खालसा और लक्ष्मी नृसिंह मंदिर ललितपुर के महंत गंगादास जी महाराज याद करते हैं कि नासिक में कहीं कीचड़ या गंदगी का नामोनिशान नहीं था। इलाहाबाद कुंभ की व्यवस्थाओं की तो अखाड़ा परिषद के पदाधिकारी भी दुहाई देते नहीं थक रहे। हरिद्वार कुंभ भी गर्मी के बावजूद शीतलता का अहसास सबको कराता है। फिर सिंहस्थ को लेकर इतनी गर्मी क्यों?  विचार तो करना ही होगा!

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